आज सुगंधियुक्त समीरण में
किसे खोजते भटकूँ वन-वन में।
आज क्षुब्ध नीलाकाश में
कैसा यह चंचल क्रंदन गूँजे।
सुदूर दिगंतर में सकरुण संगीत
कर रहा विचलित मुझे-
मैं खोजूँ किसे अंतर में, मन में
सुगंधियुक्त समीरण में।
ओ रे जानूँ कि नंदन राग में
सुख में उत्सुक यौवन जागे।
आज आम्र मुकुल-सुगंध में
नव पल्लव-मर्मर-छंद में
चंद्र-किरण-सुधा-सिंचित अंबर में
अश्रु-सरस महानंद में
मैं पुलकित किसकी छुअन में
सुगंधियुक्त समीरण में।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
Friday, September 24, 2010
Thursday, September 23, 2010
गीत 53 : नामाओ नामाओ आमाय तोमार
झुका दो, झुका दो मुझको अपने
चरण तल में,
करो मन विगलित, जीवन विसर्जित
नयन जल में।
अकेली हूँ मैं अहंकार के
उच्च शिखर पर-
माटी कर दो पथरीला आसन,
तोड़ो बलपूर्वक।
झुका दो, झुका दो मुझको अपने
चरण तल में।
किस पर अभिमान करूँ
व्यर्थ जीवन में
भरे घर में शून्य हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
दिनभर का कर्म डूबा मेरा
अतल में अहं की,
सांध्य-वेला की पूजा भी
हो न जाए विफल कहीं।
झुका दो, झुका दो मुझको अपने
चरण तल में,
चरण तल में,
करो मन विगलित, जीवन विसर्जित
नयन जल में।
अकेली हूँ मैं अहंकार के
उच्च शिखर पर-
माटी कर दो पथरीला आसन,
तोड़ो बलपूर्वक।
झुका दो, झुका दो मुझको अपने
चरण तल में।
किस पर अभिमान करूँ
व्यर्थ जीवन में
भरे घर में शून्य हूँ मैं
बिन तुम्हारे।
दिनभर का कर्म डूबा मेरा
अतल में अहं की,
सांध्य-वेला की पूजा भी
हो न जाए विफल कहीं।
झुका दो, झुका दो मुझको अपने
चरण तल में,
Wednesday, September 22, 2010
गीत 52 : तुमि आमार आपन, तुमि आछो आमार काछे
तुम ही मेरे अपने हो, तुम हो रहते पास मेरे
कह लेने दो यह बात, हाँ, कह लेने दो।
मेरे जीवन का सारा आनंद, है तुममें ही
कह लेने दो यह बात, हाँ, कह लेने दो।
मुझे सुधामय सुर दो,
मेरी वाणी सुमधुर करो-
मेरे प्रियतम तुम, यह बात
कह लेने दो, हाँ, कह लेने दो।
यह निखिल आकाश-धरा
यह सब तुमसे ही भरा-पूरा,
मुझे यह बात हृदय से अपने
कह लेने दो, हाँ, कह लेने दो।
दुःखी जानकर पास आ जाओ,
छोटा मानकर प्यार जताओ,
मेरे छोटे मुख से यह बात
कह लेने दो, हाँ, कह लेने दो।
कह लेने दो यह बात, हाँ, कह लेने दो।
मेरे जीवन का सारा आनंद, है तुममें ही
कह लेने दो यह बात, हाँ, कह लेने दो।
मुझे सुधामय सुर दो,
मेरी वाणी सुमधुर करो-
मेरे प्रियतम तुम, यह बात
कह लेने दो, हाँ, कह लेने दो।
यह निखिल आकाश-धरा
यह सब तुमसे ही भरा-पूरा,
मुझे यह बात हृदय से अपने
कह लेने दो, हाँ, कह लेने दो।
दुःखी जानकर पास आ जाओ,
छोटा मानकर प्यार जताओ,
मेरे छोटे मुख से यह बात
कह लेने दो, हाँ, कह लेने दो।
Tuesday, September 21, 2010
गीत 51 : कोन आलोते प्राणेर प्रदीप
किस प्रकाश से प्राण-प्रदीप
जलाकर तुम धरा पर आते-
ओ रे साधक, ओ रे प्रेमी,
ओ रे पागल, धरा पर आते।
इस अकूल संसार में
दुःख-आघात तुम्हारी प्राणवीणा की झंकार में।
घोर विपदा-बीच भी,
किस जननी के मुख की हँसी देखकर हँसते।
तुम हो किसके संधान में
सकल सुखों में आग लगाकर घूम रहे, कोई न जाने।
इस तरह आकुल-व्याकुल कर
कौन रुलाए तुम्हें, जिसे तुम प्यार हो करते।
तुम्हारी कोई चिन्ता नहीं-
कौन तुम्हारा संगी-साथी, यही सोचती मन में।
मृत्यु को भूलकर तुम
किस अनंत प्राण-सागर में आनंदित हो तिरते।
जलाकर तुम धरा पर आते-
ओ रे साधक, ओ रे प्रेमी,
ओ रे पागल, धरा पर आते।
इस अकूल संसार में
दुःख-आघात तुम्हारी प्राणवीणा की झंकार में।
घोर विपदा-बीच भी,
किस जननी के मुख की हँसी देखकर हँसते।
तुम हो किसके संधान में
सकल सुखों में आग लगाकर घूम रहे, कोई न जाने।
इस तरह आकुल-व्याकुल कर
कौन रुलाए तुम्हें, जिसे तुम प्यार हो करते।
तुम्हारी कोई चिन्ता नहीं-
कौन तुम्हारा संगी-साथी, यही सोचती मन में।
मृत्यु को भूलकर तुम
किस अनंत प्राण-सागर में आनंदित हो तिरते।
Monday, September 20, 2010
गीत 50 : निभृत प्राणेर देवता
एकाकी हैं जहाँ जागते
देवता निभृत प्राणों के,
भक्त, वहीं खोलो द्वार
आज करूँगी दर्शन उनके।
सारा दिन केवल बाहर ही
घूम-घूम किसको चाहूँ रे,
सांध्य-बेला की आरती
सीख नहीं मैं पाई रे।
तुम्हारे जीवन के प्रकाश से
अपना जीवन-दीप जलाऊँ
हे पुजारी, निभृत में आज
मैं अपनी थाल सजाऊँ।
जहाँ पर निखिल की साधना
करे पूजालोक की रचना
वहीं पर मैं भी आँकूँगी
बस एक ज्योति रेखा।
देवता निभृत प्राणों के,
भक्त, वहीं खोलो द्वार
आज करूँगी दर्शन उनके।
सारा दिन केवल बाहर ही
घूम-घूम किसको चाहूँ रे,
सांध्य-बेला की आरती
सीख नहीं मैं पाई रे।
तुम्हारे जीवन के प्रकाश से
अपना जीवन-दीप जलाऊँ
हे पुजारी, निभृत में आज
मैं अपनी थाल सजाऊँ।
जहाँ पर निखिल की साधना
करे पूजालोक की रचना
वहीं पर मैं भी आँकूँगी
बस एक ज्योति रेखा।
Friday, September 17, 2010
गीत 49 : हेथाय तिनि कोल पेतेछेन
यहीं आन वे आज विराजे
हमलोगों के इस घर में।
सजा दो उनका आसन भाई
अच्छा लगे जो मन में।
आनंद-मग्न हो गाते हुए
धूल बुहारो, झाड़ो सारी।
सावधानी से दूर हटा दो
कूड़ा-कचरा है जो भी।
जल छिड़ककर फूलों को
रखो भरकर डाली में-
सजा दो उनका आसन भाई,
अच्छा लगे जो मन में।
दिन-रात वे हैं विराजे
हमलोगों के इस घर में,
सुबह-सवेरे उनकी हँसी
आलोक बिखेरे घर में।
ज्योंही सुबह जागकर उठकर
नयन मिलाना चाहूँ।
खुश हो वे खुश देखना चाहें
मुझको, ऐसा पाऊँ।
उनके मुख की हँसी-खुशी
भर जाए पूरे घर में।
सुबह-सवेरे उनकी हँसी
आलोक बिखेरे घर में।
अकेले ही वे बैठे रहते
हमलोगों के इस घर में।
हमसब जब भी अन्य कहीं
चले जाते अपने काम में।
द्वार तक आ प्रसन्न मुख से
विदा हमको हैं वे कर जाते-
प्रमुदित मन से बढ़ते पथ पर
आनंदित हो हम गाते-गाते।
निपटाकर सारे काम जब लौटें
दिन ढलने पर हम घर में,
पाएँ उनको अकेले बैठे
हमलोगों के इस घर में।
वे जगे हुए बैठे रहते हैं
हमलोगों के इस घर में
हम सब जब चेतना खोकर
सोए रहते हैं बिस्तर में।
जगत में कोई देख न पाता
छुपी हुई उनकी बाती,
ओट में रखकर आँचल के
वे सारी रात जलाएँ ज्योति।
नींद में बहुत सारे सपने
हैं आते-जाते रहते,
अंधकार में मुस्काते वे
हमलोगों के इस घर में।
हमलोगों के इस घर में।
सजा दो उनका आसन भाई
अच्छा लगे जो मन में।
आनंद-मग्न हो गाते हुए
धूल बुहारो, झाड़ो सारी।
सावधानी से दूर हटा दो
कूड़ा-कचरा है जो भी।
जल छिड़ककर फूलों को
रखो भरकर डाली में-
सजा दो उनका आसन भाई,
अच्छा लगे जो मन में।
दिन-रात वे हैं विराजे
हमलोगों के इस घर में,
सुबह-सवेरे उनकी हँसी
आलोक बिखेरे घर में।
ज्योंही सुबह जागकर उठकर
नयन मिलाना चाहूँ।
खुश हो वे खुश देखना चाहें
मुझको, ऐसा पाऊँ।
उनके मुख की हँसी-खुशी
भर जाए पूरे घर में।
सुबह-सवेरे उनकी हँसी
आलोक बिखेरे घर में।
अकेले ही वे बैठे रहते
हमलोगों के इस घर में।
हमसब जब भी अन्य कहीं
चले जाते अपने काम में।
द्वार तक आ प्रसन्न मुख से
विदा हमको हैं वे कर जाते-
प्रमुदित मन से बढ़ते पथ पर
आनंदित हो हम गाते-गाते।
निपटाकर सारे काम जब लौटें
दिन ढलने पर हम घर में,
पाएँ उनको अकेले बैठे
हमलोगों के इस घर में।
वे जगे हुए बैठे रहते हैं
हमलोगों के इस घर में
हम सब जब चेतना खोकर
सोए रहते हैं बिस्तर में।
जगत में कोई देख न पाता
छुपी हुई उनकी बाती,
ओट में रखकर आँचल के
वे सारी रात जलाएँ ज्योति।
नींद में बहुत सारे सपने
हैं आते-जाते रहते,
अंधकार में मुस्काते वे
हमलोगों के इस घर में।
Thursday, September 16, 2010
गीत 48 : आकाशतले उठलो फुटे
आकाशतल में फूट पड़ा है
आलोकमान शतदल।
पंखुड़ियाँ सब एक-एक कर
बिखर गईं दिक्-दिगंतर,
ढँक गया अंधकार का
निबिड़ काला जल।
ठीक बीच में स्वर्णकोष के
आनंदित बैठी हूँ भाई
मुझे घेरकर बिखरे धीरे
आलोकमान शतदल।
आकाश में तो लहराकर
बहती जाए हवा।
चतुर्दिक गूँजें गान,
चतुर्दिक नाचें प्राण,
गगन-भरा यह परश
छूए पूरी काया।
इस प्राण-सागर में डुबकी लेकर
प्राणों को भर रहा वक्ष में,
लौट-लौटकर, मुझे घेरकर
बहती जाए हवा।
दशों दिशाएँ फैला आँचल
धरा ने अपनी गोद बनाई।
जीव हैं जो भी जहाँ
सबको वह बुलाके लाती,
सबके हाथों, सबके पात्रों में
अन्न है वह बाँट देती।
गीत-गंध से भर गया मन,
महानंद में बैठी हूँ मैं
मुझे घेरकर आँचल फैला
धरा है गोद देती।
आलोक, तुमको करूँ प्रणाम
क्षमा करो, मेरा अपराध।
ललाट पर मेरे अंकित कर दो
परमपिता का आशीर्वाद।
हवा, तुमको करूँ प्रणाम
दूर करो मेरा अवसाद।
संचरित हो मेरी सकल देह में
परमपिता का आशीर्वाद।
धरा, तुमको करूँ प्रणाम
मिटा दो मेरी सारी साध।
घर भर के लिए फलित हो
परमपिता का आशीर्वाद।
आलोकमान शतदल।
पंखुड़ियाँ सब एक-एक कर
बिखर गईं दिक्-दिगंतर,
ढँक गया अंधकार का
निबिड़ काला जल।
ठीक बीच में स्वर्णकोष के
आनंदित बैठी हूँ भाई
मुझे घेरकर बिखरे धीरे
आलोकमान शतदल।
आकाश में तो लहराकर
बहती जाए हवा।
चतुर्दिक गूँजें गान,
चतुर्दिक नाचें प्राण,
गगन-भरा यह परश
छूए पूरी काया।
इस प्राण-सागर में डुबकी लेकर
प्राणों को भर रहा वक्ष में,
लौट-लौटकर, मुझे घेरकर
बहती जाए हवा।
दशों दिशाएँ फैला आँचल
धरा ने अपनी गोद बनाई।
जीव हैं जो भी जहाँ
सबको वह बुलाके लाती,
सबके हाथों, सबके पात्रों में
अन्न है वह बाँट देती।
गीत-गंध से भर गया मन,
महानंद में बैठी हूँ मैं
मुझे घेरकर आँचल फैला
धरा है गोद देती।
आलोक, तुमको करूँ प्रणाम
क्षमा करो, मेरा अपराध।
ललाट पर मेरे अंकित कर दो
परमपिता का आशीर्वाद।
हवा, तुमको करूँ प्रणाम
दूर करो मेरा अवसाद।
संचरित हो मेरी सकल देह में
परमपिता का आशीर्वाद।
धरा, तुमको करूँ प्रणाम
मिटा दो मेरी सारी साध।
घर भर के लिए फलित हो
परमपिता का आशीर्वाद।
Wednesday, September 15, 2010
गीत 47 : रूप सागरे डुब दियेछि
रूप-सागर में लगाकर डुबकी
अरूप रतन की आशा करती,
भटकूँगी अब न घाट-घाट पर
उतारने को अपनी जर्जर नौका।
इस बार घड़ी वह आ ही जाए
लहरों से टकराव, अब नहीं बस,
इस बार सुधा के तल में जाकर
मरकर भी मुझको अमर है बनना।
जो गान नहीं सुना कानों से
वह गान जहाँ नित्य ही गूँजे
जाऊँगी लेकर प्राणों की वीणा
उसी अतल में, बीच सभा में।
चिरंतन सुरों को साधकर
अंत में अपना रुदन पिरोकर
नीरव है जो, पैरों में उसके
धर दूँगी यह नीरव वीणा।
अरूप रतन की आशा करती,
भटकूँगी अब न घाट-घाट पर
उतारने को अपनी जर्जर नौका।
इस बार घड़ी वह आ ही जाए
लहरों से टकराव, अब नहीं बस,
इस बार सुधा के तल में जाकर
मरकर भी मुझको अमर है बनना।
जो गान नहीं सुना कानों से
वह गान जहाँ नित्य ही गूँजे
जाऊँगी लेकर प्राणों की वीणा
उसी अतल में, बीच सभा में।
चिरंतन सुरों को साधकर
अंत में अपना रुदन पिरोकर
नीरव है जो, पैरों में उसके
धर दूँगी यह नीरव वीणा।
Monday, September 13, 2010
गीत 46 : आसनतलेर माटिर प'रे लुटिये रबो
आसन तले माटी में ही रहूँगी लोटती।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।
क्यों मुझको देकर मान, रखते हो इतनी दूर,
जनम-जनम तक ऐसे ही, रखना नहीं भुलाए,
जैसे-तैसे पकड़कर-खींचकर डालो अपने पैरों में।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।
मैं तुम्हारे यात्राी दल में रहूँगी पीछे
मुझको देना स्थान, तुम सबसे नीचे।
कितने ही लोग दौड़े आते पाने को प्रसाद,
मुझे न कुछ भी चाहिए, बस रहूँ पास-
सबके अंत में जो भी बचे, बस लूँगी वही।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।
क्यों मुझको देकर मान, रखते हो इतनी दूर,
जनम-जनम तक ऐसे ही, रखना नहीं भुलाए,
जैसे-तैसे पकड़कर-खींचकर डालो अपने पैरों में।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।
मैं तुम्हारे यात्राी दल में रहूँगी पीछे
मुझको देना स्थान, तुम सबसे नीचे।
कितने ही लोग दौड़े आते पाने को प्रसाद,
मुझे न कुछ भी चाहिए, बस रहूँ पास-
सबके अंत में जो भी बचे, बस लूँगी वही।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।
Thursday, September 9, 2010
गीत 45 : आलोय आलोकमय करे हे
आलोक से करते हुए आलोकित
आए आलोकों के आलोक।
मेरे नयनों से अंधकार
दूर हुआ, हाँ दूर हुआ।
सकल आकाश, सकल धरा
आनंद-उल्लास से परिपूरित,
जिधर भी मैं देख जहाँ तक पाऊँ
सबकुछ है कितना अच्छा।
पेड़ों के पत्तों में आलोक तुम्हारा
नाचकर भरता प्राण।
पहुँचकर घोंसलों में चिड़ियों के
जगाकर करता गान।
स्नेहिल यह आलोक तुम्हारा
पड़ता आकर गात पर मेरे,
निर्मल हाथों हृदय को मेरे
सहला रहा, सहला रहा।
आए आलोकों के आलोक।
मेरे नयनों से अंधकार
दूर हुआ, हाँ दूर हुआ।
सकल आकाश, सकल धरा
आनंद-उल्लास से परिपूरित,
जिधर भी मैं देख जहाँ तक पाऊँ
सबकुछ है कितना अच्छा।
पेड़ों के पत्तों में आलोक तुम्हारा
नाचकर भरता प्राण।
पहुँचकर घोंसलों में चिड़ियों के
जगाकर करता गान।
स्नेहिल यह आलोक तुम्हारा
पड़ता आकर गात पर मेरे,
निर्मल हाथों हृदय को मेरे
सहला रहा, सहला रहा।
Wednesday, September 8, 2010
गीत 44 : जगते आनंद-यज्ञे आमार निमंत्रण
जगत के आनंद-यज्ञ में मिला निमंत्रण।
धन्य हुआ, धन्य हुआ, मेरा मानव-जीवन।
रूपनगर में नयन मेरे
घूम-घूमकर साध मिटाते,
कान मेरे गहन सुरों में
हुए हैं मगन।
अपने यज्ञ में तुमने भार दिया है
मैं बजाऊँ वंशी।
पिरोकर गान-गान में घूमूँ
रुदन-हँसी प्राणों की।
अब घड़ी आ गई है क्या?
सभा में जाकर तुमको देखूँ
‘जयध्वनि’ करता जाऊँ,
है मेरा यही निवेदन।
धन्य हुआ, धन्य हुआ, मेरा मानव-जीवन।
रूपनगर में नयन मेरे
घूम-घूमकर साध मिटाते,
कान मेरे गहन सुरों में
हुए हैं मगन।
अपने यज्ञ में तुमने भार दिया है
मैं बजाऊँ वंशी।
पिरोकर गान-गान में घूमूँ
रुदन-हँसी प्राणों की।
अब घड़ी आ गई है क्या?
सभा में जाकर तुमको देखूँ
‘जयध्वनि’ करता जाऊँ,
है मेरा यही निवेदन।
Tuesday, September 7, 2010
गीत 43 : प्रभु, आजि तोमार दक्षिण हात
प्रभु आज छुपाकर मत रखो
अपना दायाँ हाथ।
राखी बाँधने आई हूँ
मैं तुमको हे नाथ।
यदि बाँधूँ तुम्हारे हाथ में
बँध जाऊँ सबके साथ में,
जहाँ कहीं भी कोई भी हो
रह न पाएगा बाकी।
आज बस भेद न रहे
अपने-पराये का,
तुमको बाहर-घर में जैसे
देख पाती एक-सा।
तुमसे विच्छेद के चलते ही
रो-राकर मैं भटकती
हो मिलन क्षणभर का भी
मैं तुम्हें पुकारती।
अपना दायाँ हाथ।
राखी बाँधने आई हूँ
मैं तुमको हे नाथ।
यदि बाँधूँ तुम्हारे हाथ में
बँध जाऊँ सबके साथ में,
जहाँ कहीं भी कोई भी हो
रह न पाएगा बाकी।
आज बस भेद न रहे
अपने-पराये का,
तुमको बाहर-घर में जैसे
देख पाती एक-सा।
तुमसे विच्छेद के चलते ही
रो-राकर मैं भटकती
हो मिलन क्षणभर का भी
मैं तुम्हें पुकारती।
Monday, September 6, 2010
गीत 42 : गाये आमार पुलक जागे
मेरे तन में पुलक जगी है,
आँखों में हुई घनघोर-
हृदय में मेरे किसने बाँधी
राखी की रंगीन डोर।
आज इस आकाश के नीचे
जल में, थल में, फूल में, फल में
किस प्रकार हे मनोहरण,
छितराया मेरा मन।
कैसा खेल हुआ है मेरा
आज तुम्हारे संग में।
पाया है क्या खोज-भटककर
सोच न पाऊँ मन में।
आनंद आज कैसे किस ढब से
आँसू छलकाए आँखों में,
मृदु-मधुर बनकर विरह आज
कर गया प्राणों को विभोर।
आँखों में हुई घनघोर-
हृदय में मेरे किसने बाँधी
राखी की रंगीन डोर।
आज इस आकाश के नीचे
जल में, थल में, फूल में, फल में
किस प्रकार हे मनोहरण,
छितराया मेरा मन।
कैसा खेल हुआ है मेरा
आज तुम्हारे संग में।
पाया है क्या खोज-भटककर
सोच न पाऊँ मन में।
आनंद आज कैसे किस ढब से
आँसू छलकाए आँखों में,
मृदु-मधुर बनकर विरह आज
कर गया प्राणों को विभोर।
Friday, September 3, 2010
गीत 41 : एइ मलिन वस्त्र छाड़ते होबे
यह मलिन वस्त्र छोड़ना होगा
छोड़ना होगा इस बार-
मेरा यह मलिन अहंकार।
दिन के कामों में धूल लगी
अनेक दागों में हुआ दागी
वैसे भी यह तपा हुआ है
इसको सहना भार
मेरा यह मलिन अहंकार।
अब जब निपटे सारे काम
दिन के अवसान में,
उसके आने का समय हुआ,
आशा जगी प्राण में।
अब स्नान करके आओ तब
पहनने होंगे प्रेम वसन,
संध्या वन के फूल चुनकर
गूँथना होगा हार।
अरे आओ भी
समय नहीं अब पास।
छोड़ना होगा इस बार-
मेरा यह मलिन अहंकार।
दिन के कामों में धूल लगी
अनेक दागों में हुआ दागी
वैसे भी यह तपा हुआ है
इसको सहना भार
मेरा यह मलिन अहंकार।
अब जब निपटे सारे काम
दिन के अवसान में,
उसके आने का समय हुआ,
आशा जगी प्राण में।
अब स्नान करके आओ तब
पहनने होंगे प्रेम वसन,
संध्या वन के फूल चुनकर
गूँथना होगा हार।
अरे आओ भी
समय नहीं अब पास।
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