पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Tuesday, July 26, 2011

गीत 63 : मेनेछि हार मेनेछि

मान ली, हार मान गई।
जितना ही तुमको दूर ढकेला
उतनी ही मैं दूर भई।

मेरे चित्‍ताकाश से
तुम्‍हें जो कोई दूर रखे
कैसे भी यह सह्य नहीं
हर बार ही जान गई।

अतीत जीवन की छाया बन
चलता पीछे-पीछे,
अनगिन माया बजाकर वंशी
व्‍यर्थ ही पुकारें मुझे।

सब छूटे, पाकर साथ तुम्‍हारा
अब हाथों में डोर तुम्‍हारे
जो है मेरा इस जीवन में
लेकर आई द्वार तुम्‍हारे।

Thursday, July 21, 2011

गीत 62 : तोरा शुनिस नि कि शुनिस नि

तुमने सुनी नहीं क्‍या सुनी नहीं, उसके पैरों की ध्‍वनि
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

युग-युग में, पल-पल में दिन-रात
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

गाए हैं गान जब भी जितने
अपनी धुन में पागल होकर
सकल सुरों में गूँजित उसकी ही
आगमनी--
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

युगों-युगों से फागुन-दिन में, वन के पथ पर
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।
सावन के अनगिन अंधकार में बादल-रथ पर
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।

दुख के बाद, चरम दुख में
उसकी ही पगध्‍वनि आती हिय में
सुख में जाने कब परस कराता
पारसमणि।
वह तो आ रहा है, आ रहा है, आ रहा है।