पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Wednesday, June 22, 2011

गीत 61 : से जे पाशे एसे बसे छिलो

वह तो पास आकर बैठा था
तब भी जागी नहीं।
कैसी नींद थी तुम्‍हारी,
हतभागिनी।

आया था नीरव रात में
वीणा थी उसके हाथ में
सपने में ही छेड़ गया
गहन रागिनी।

जगने पर देखा, दक्षिणी हवा
करती हुई पागल
उसकी गंध फैलाती हुई
भर रही अंधकार।

क्‍यों मेरी रात बीती जाती
साथ पाकर भी पास न पाती
क्‍यों उसकी माला का परस
वक्षों को हुआ नहीं।

Monday, June 20, 2011

गीत 60 : विश्‍व जखन निद्रामगन

विश्‍व जब निद्रा-मग्‍न
गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार।

नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
ऑंख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन।

गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन-सी विपुल वाणी
गूँजती व्‍याकुल सुर में।

समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।

Saturday, June 18, 2011

गीत 59 : एबार नीरव कोरे दाओ हे

इस बार अपने मुखर कवि को
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बॉंसुरी छीनकर स्‍वयं
गहन सुर भर दो।

निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।

बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाऍं
तुम्‍हारे चरण में।

बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाऍंगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।

Wednesday, June 15, 2011

गीत 58 : जीवन जखन शुकाये जाय

जीवन जब लगे सूखने
करुणा-धारा बनकर आओ।
सकल माधुर्य लगे छिपने,
गीत-सुधा-रस बरसाओ।

कर्म जब लेकर प्रबल आकार
गरजकर ढक ले चार दिशाऍं
हृदय-प्रांत में, हे नीरव नाथ,
दबे पॉंव आ जाओ।

स्‍वयं को जब बनाकर कृपण
कोने में पड़ा रहे दीन-हीन मन
द्वार खोलकर, हे उदार-मन,
राजसी ठाठ से आओ।

वासना जब विपुल धूल से
अंधा बना अबोध को छले
अरे ओ पवित्र, अरे ओ अनिद्र
प्रचंड प्रकाश बन आओ।