वह तो पास आकर बैठा था
तब भी जागी नहीं।
कैसी नींद थी तुम्हारी,
हतभागिनी।
आया था नीरव रात में
वीणा थी उसके हाथ में
सपने में ही छेड़ गया
गहन रागिनी।
जगने पर देखा, दक्षिणी हवा
करती हुई पागल
उसकी गंध फैलाती हुई
भर रही अंधकार।
क्यों मेरी रात बीती जाती
साथ पाकर भी पास न पाती
क्यों उसकी माला का परस
वक्षों को हुआ नहीं।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
Wednesday, June 22, 2011
Monday, June 20, 2011
गीत 60 : विश्व जखन निद्रामगन
विश्व जब निद्रा-मग्न
गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार।
नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
ऑंख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन।
गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन-सी विपुल वाणी
गूँजती व्याकुल सुर में।
समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।
गगन में अंधकार,
कौन देता मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झनकार।
नयनों से नींद छीन ली
उठ बैठी छोड़कर शयन
ऑंख मलकर देखूँ खोजूँ
पाऊँ न उनके दर्शन।
गुंजन से गुंजरित होकर
प्राण हुए भरपूर
न जाने कौन-सी विपुल वाणी
गूँजती व्याकुल सुर में।
समझ न पाती किस वेदना से
भरे दिल से ले अश्रुभार
किसे चाहती पहना देना
अपने गले का हार।
Saturday, June 18, 2011
गीत 59 : एबार नीरव कोरे दाओ हे
इस बार अपने मुखर कवि को
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बॉंसुरी छीनकर स्वयं
गहन सुर भर दो।
निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।
बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाऍं
तुम्हारे चरण में।
बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाऍंगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बॉंसुरी छीनकर स्वयं
गहन सुर भर दो।
निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।
बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाऍं
तुम्हारे चरण में।
बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाऍंगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।
Wednesday, June 15, 2011
गीत 58 : जीवन जखन शुकाये जाय
जीवन जब लगे सूखने
करुणा-धारा बनकर आओ।
सकल माधुर्य लगे छिपने,
गीत-सुधा-रस बरसाओ।
कर्म जब लेकर प्रबल आकार
गरजकर ढक ले चार दिशाऍं
हृदय-प्रांत में, हे नीरव नाथ,
दबे पॉंव आ जाओ।
स्वयं को जब बनाकर कृपण
कोने में पड़ा रहे दीन-हीन मन
द्वार खोलकर, हे उदार-मन,
राजसी ठाठ से आओ।
वासना जब विपुल धूल से
अंधा बना अबोध को छले
अरे ओ पवित्र, अरे ओ अनिद्र
प्रचंड प्रकाश बन आओ।
करुणा-धारा बनकर आओ।
सकल माधुर्य लगे छिपने,
गीत-सुधा-रस बरसाओ।
कर्म जब लेकर प्रबल आकार
गरजकर ढक ले चार दिशाऍं
हृदय-प्रांत में, हे नीरव नाथ,
दबे पॉंव आ जाओ।
स्वयं को जब बनाकर कृपण
कोने में पड़ा रहे दीन-हीन मन
द्वार खोलकर, हे उदार-मन,
राजसी ठाठ से आओ।
वासना जब विपुल धूल से
अंधा बना अबोध को छले
अरे ओ पवित्र, अरे ओ अनिद्र
प्रचंड प्रकाश बन आओ।
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