तुम इस बार मुझे अपना ही लो हे नाथ, अपना लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ-
हृदय चुराकर ही मानो।
गुजरे जो दिन बिना तुम्हारे
वे दिन वापस नहीं चाहिए
खाक में मिल जाऍं वे
अब तुम्हारी ज्योति से जीवन ज्योतित कर
देखो मैं जागूँ निरंतर।
किस आवेश में, किसकी बात में आकर
भटकता रहा मैं जहॉं-तहॉं-
पथ-प्रांतर में,
इस बार सीने से मुख मेरा लगा
तुम बोलो आप्तवचन।
कितना कलुष, कितना कपट
अभी भी हैं जो शेष कहीं
मन के गोपन में
मुझको उनके लिए फिर लौटा न देना
अग्िन में कर दो उनका दहन।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
Thursday, April 21, 2011
Wednesday, April 13, 2011
गीत 56 : तव सिंहासनेर आसन ह'ते
सिंहासन के अपने आसन से
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।
बैठ अकेला मन-ही-मन
गाता था मैं गान,
तुम्हारे कानों तक पहुँचा वह सुर,
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।
तुम्हारी सभा में कितने ही गुणी
कितने ही हैं गान
मिला तुम्हारा प्रेम, तभी गा सका आज
यह गुणहीन भी गान।
विश्व-तान के बीच उठा यह
एक करुण सुर।
लेकर हाथों में वर-माला
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ खड़े हो गए ठिठककर।
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।
बैठ अकेला मन-ही-मन
गाता था मैं गान,
तुम्हारे कानों तक पहुँचा वह सुर,
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ, खड़े हो गए ठिठककर।
तुम्हारी सभा में कितने ही गुणी
कितने ही हैं गान
मिला तुम्हारा प्रेम, तभी गा सका आज
यह गुणहीन भी गान।
विश्व-तान के बीच उठा यह
एक करुण सुर।
लेकर हाथों में वर-माला
तुम आ गए उतरकर-
मेरे एकाकी घर के दरवाजे पर
नाथ खड़े हो गए ठिठककर।
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