इस बार अपने मुखर कवि को
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बॉंसुरी छीनकर स्वयं
गहन सुर भर दो।
निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।
बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाऍं
तुम्हारे चरण में।
बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाऍंगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
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