पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Saturday, July 31, 2010

गीत 24 : जदि तोमार देखा ना पाइ, प्रभु

यदि तुम्हारे दर्शन  पाऊँ, प्रभु,
इस बार के जीवन में
तब तुम्हें मैं पा न सकी
यह बात रहेगी मन में
इसे भुला न पाऊँ, वेदना पाऊँ
सोते हुए भी स्वप्न में।

इस दुनिया के हाट में
मेरे इतने सारे दिन बीते
मेरे हाथों में इतना धन आया
तब भी कुछ पा न सकी मैं
यह बात रहेगी मन में
इसे भुला न पाऊँ, वेदना पाऊँ
सोते हुए भी स्वप्न में।


यदि आलस आ जाए
मैं सड़क पर ही बैठ जाऊँ
यदि धूल में सेज बिछाऊँ यत्न से
किंतु करनी है सारी राह तय
यह बात रहेगी मन में ।
इसे भुला न पाऊँ, वेदना पाऊँ
सोते हुए भी स्वप्न में ।

जितनी आए हँसी,
घर में जितनी बजे वंशी,
अरे ओ, जितना भी आयोजन में सजा लूँ घर
किंतु तुम्हें घर में लाना हुआ नहीं
यह बात रहेगी मन में ।
इसे भुला न पाऊँ, वेदना पाऊँ

सोते हुए भी स्वप्न में ।

Friday, July 30, 2010

गीत 23 : एमन आड़ाल दिये लुकिये गेले चलबे ना

ऐसे ओट लेकर छिपने से
कैसे चलेगा।
अब बीच हृदय में बैठो छुपकर
न कोई जान पाएगा, न टोकेगा।

तुम्हारी लुकाछिपी की दुनिया में,
कितना घूमूँ देश-विदेश,
अब वचन दो मुझको नहीं छलोगे
मन के कोने में रहोगे।
ओट लेकर छिपने से
कैसे चलेगा।

जानूँ मेरा यह हृदय कठोर

तुम्हारे चरणों के नहीं योग्य
सखे पर क्या तुम्हारा परस पाकर भी
इसमें न आएगी सरसता।

नहीं है, मेरी नहीं साधना,
किंतु जो बरसे कृपा तुम्हारी।
तब निमिष में क्या फूल न खिलेंगे
और क्या फल न फलेगा।
ओट लेकर छिपने से
कैसे चलेगा।

Thursday, July 29, 2010

गीत 22 : तुमि केमन करे गान करो जे गुणी

तुम कैसे गाते हो गान, गुणी,
अवाक् हो सुनूँ, केवल सुनूँ।

सुर का प्रकाश छाया भुवन में,
चली सुर की हवा बहती गगन में,
टूटते पाषाण व्याकुल वेग में
बहती ही जाए सुरों की सुरधुनी।

जी चाहता उसी सुर में गाऊँ।
कंठ में अपने सुर खोज न पाऊँ।

कहना जो चाहूँ, कह न पाऊँ,
पराजय मानने में प्राण मेरे रोएँ,
डाल दिया तुमने मुझे किस फंदे में
बुनकर सुरों का जाल मेरे चतुर्दिक्।

Wednesday, July 28, 2010

गीत 21 : जानि जानि कोन आदिकाल हते

जानती मुझे किस आदिकाल से
बहा रखा इस जीवन-प्रवाह में,
प्रिय, सहसा छोड़ गए कितने ही
घर, पथ, प्राणों में इतना हर्ष।

असंख्य बार तुम मेघों की ओट में
मधुर मुस्कान के साथ हुए खड़े,
अरुण किरणों के साथ बढ़ाए चरण
ललाट पर किया शुभ स्पर्श।

संचित हैं इन आँखों में
असंख्य काल और लोकों में
असंख्य नवीन आलोकों में
अरूप के असंख्य रूप-दर्श।

कोई न जाने, कितने युग-युगों से,
भर-भर उमड़ रहा प्राणों में
असंख्य सुख-दुःख और प्रेम-गानों में
बरस रहा ऐसा अमृत-रस।

Tuesday, July 27, 2010

गीत 20 : आजि झड़ेर राते तोमार अभिसार

आज तूफानी रात में हो तुमसे अभिसार,
प्राणसखा, हे मेरे प्यार।

आकाश रोता हताश-सा,
नींद नहीं मेरी आँखों में,
द्वार खोलकर, हे प्रियतम,
चाहूँ बस तुमको बार-बार
प्राणसखा, हे मेरे प्यार।

बाहर कुछ भी देख न पाऊँ,
तुम किस पथ पर मन में लाऊँ।

सुदूर किस नदी के पार,
किस गहन वन के पास,
कौन-सा घन अंधकार
कर रहे तुम पार।

प्राणसखा, हे मेरे प्यार।

Monday, July 26, 2010

गीत 19 : आषाढ़-संध्‍या घनिए एलो

आषाढ़-संध्या घिर आई,
दिन फिर गया गुजर।
बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।

घर के कोने में बैठ अकेले
यह सोचूँ मन ही मन मैं
भीगी हवा जूही के वन में
कौन-सी बात कहे जाकर।

बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।

ज्वार उठा है अंतर में,
खोज न पाऊँ कूल।
रोते प्राण, सुरभि से जब
भीगे वन के फूल।

अँधेरी रात के इन प्रहरों में,
गाऊँ मैं किन सुरों में,
हूँ मैं आकुल-व्याकुल
सब भूल जाऊँ कहाँ खोकर।

बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।

Sunday, July 25, 2010

गीत 18 : आजि श्रावण-घन-गहन-मोहे

आज सावन-घन-गहन-मोह में
कदम बढ़ा अपने चुपचाप
रात की तरह होकर निश्शब्द
बचाकर आए सबकी आँख।

सुबह ने आँखें न खोलीं,
व्यर्थ पुकारती जाती हवा,
फैलाकर किसने काले बादल
निर्लज्ज नीले नभ को ढँका।

कलरवविहीन कानन सारे
बंद घरों के द्वार सब
एकाकी हो तुम पथिक कौन
पथिकहीन इस पथ पर।

हे एका सखा, हे प्रियतम,
खुला पड़ा है, यह मेरा घर,
दर्शन देकर सपने-जैसा
जाना नहीं मुझे ठुकराकर।

Saturday, July 24, 2010

गीत 17 : कोथाय आलो, कोथाय ओरे आलो

कहाँ है प्रकाश, प्रकाश है कहाँ अरे?
विरहानल की ज्वाला से जलाओ उसे।
दीपक है रखा, पर नहीं है शिखा,
है क्या यही, कपाल पर लिखा-
इससे तो अच्छा मर जाना।
विरहानल से दीप जलाना।

वेदना देती आकर संदेश-‘अरे ओ प्राण,
तुम्हारे लिए ही जाग रहे भगवान।
घनी अँधेरी रात में बुला रहे
प्रेमाभिसार के लिए तुझे,
दुःख देकर रखते तेरा मान।
तुम्हारे लिए ही जाग रहे भगवान।’

आकाश गया है बादलों से भर,
बरस रहा है पानी झर-झर।
किसके लिए घोर ऐसी रात में
जाग उठे हैं अचानक प्राण मेरे
ऐसा क्यों होता रह-रहकर।
बरस रहा है पानी झर-झर।

क्षण भर का यह विद्युत प्रकाश,
आँखों में लाता घनांधकार।
न जाने कहाँ, कहीं बहुत दूर
गान बजा, है गहन सुर,
खींचता मेरे प्राण अपनी ओर।
आँखों में लाता घनांधकार।

कहाँ है प्रकाश, प्रकाश कहाँ है अरे?
विरहानल की ज्वाला से जलाओ उसे।
बुलाता मेघ, हाँकती हवा,
न होगा जाना, जो स
य गया,
है रात काली, निकष-घन जैसे।
प्रेम का दीपक जलाओ प्राण देके।

Friday, July 23, 2010

गीत 16 : मेघेरे परे मेघ जमेछे

घन के ऊपर घन घनघोर
करते आ रहे अँधेरा-
बिठा रखा है मुझको क्यों
द्वार के पास अकेला।

व्यस्त दिनों में काम-धाम में
रहती लोगों के संग-साथ में,
आज जो बैठी हूँ मैं यहाँ
लेकर बस तेरी ही आशा
बिठा रखा है मुझको क्यों
द्वार के पास अकेला।

यदि न तुम दर्शन दो
करो मेरी अवहेला,
फिर कैसे कटेगी मेरी
ऐसी बादल-बेला।

दूर तक बिछाए पलक पाँवड़े
देखती बस तुम्हारी ही राह
भटकते रो-रोकर प्राण मेरे
और यह तूफानी हवा।
बिठा रखा है मुझको क्यों
द्वार के पास अकेला।

Thursday, July 22, 2010

गीत 15 : जगत जुड़े उदार सुरे

आनंद गान है गूंजित जिससे
जुड़ा जगत उदार सुर में,
वह गान उच्च स्वरों में कब
गूँजेगा अंतरतर में।

आकाश, प्रकाश, हवा और जल
होगा कब इनसे प्रेम-प्रसंग।
हृदय-सभा में जुटकर सारे
बैठेंगे कब नाना रूपों में।

ये नैन खुलेंगे कब
कि प्राणों को मिले खुशी
जिस पथ से चलते जाएँ
सबको हो संतुष्टि।

तुम्हारा साथ है, यह बात कब
जीवन में होगी सत्य सहज
ध्वनित होगा सब कर्मों में
तुम्हारा नाम सहज ही कब।

Wednesday, July 21, 2010

गीत 14 : जननी, तोमार करुण चरणखानि

जननी तुम्हारे दोनों करुण चरण
दिखे हैं आज इस अरुण किरण में।

जननी तुम्हारी मृत्युंजय वाणी
भर जाए चुपके से नीरव गगन में।

तुम्हें नमन है निखिल भुवन में,
तुम्हें नमन है सब जीवन-कर्म में,
तन-मन-धन करूँ आज समर्पण
तुम्हारे भक्तिपावन पूजार्चन में।

जननी तुम्हारे दोनों करुण चरण
दिखे हैं आज इस अरुण किरण में।

Tuesday, July 20, 2010

गीत 13 : आमार नय-भुलानो एले

मेरे नयनों को मोहित करने आई
मैं हृदय खोलकर देख तुम्हें क्या पाई।

पारिजात के नीचे आस-पास
राशि-राशि झरे फूलों में
ओस से भीगी घासों में
आलता-रँगे चरण बढ़ाई
नयनों को मोहित करने आई।

धूप-छाँही तेरा आँचल
फैला है जंगल-जंगल,
फूल सभी बस तुम्हें देखकर
कहते हैं यह मन ही मन।

करेंगे हम तुम्हारा वरण,
हटा दो मुख से आभरण,
और यह जो मेघावरण
दोनों हाथों से दो सरकाई
नयनों को मोहित करने आई।

वनदेवी के द्वार-द्वार पर
उच्च शंख-ध्वनि पड़े सुनाई
गगन-वीणा के तार-तार में
तेरे ही आने की बधाई।

कहाँ बज रहे स्वर्ण नूपुर,
अरे यह तो मेरे अंतरतर में,
सभी भाव और सभी काम में
तुम सरस सुधा सरसाने आई
नयनों को मोहित करने आई।

Monday, July 19, 2010

गीत 12 : लेगेछे अमल धवल पाले

अमल धवल पाल से लगती
मंद-मधुर हवा।
देखी नहीं, कभी ना देखी
तिरते ऐसे नइया।

किस सागर के पार से लाती
सुदूर पड़ा कौन-सा धन।
मन भी चाहे बहते जाना,
छोड़ते जाना इसी किनारे
जो भी सब चाहा-पाया।

पीछे लगी है जल की झड़ी
घोर गर्जना करते मेघ,
चेहरे पर पड़ती अरुण किरण
जब फट जाते मेघ।

अरे ओ कर्णधार, कौन हो तुम,
किसकी खुशी-रूलाई का धन।
सोच-सोच विचलित मेरा मन,
किस सुर में आज सजेंगे साज
किस मंत्र का होगा गान।

Sunday, July 18, 2010

गीत 11 : आमरा बेंधेछि काशेर गुच्‍छ

हमने बाँधे हैं काश-गुच्छ, हमने
गूँथी हैं शेफाली-माला।
नए धान की मंजरियों से
सजाकर लाए हैं डाला।

पधारो हे शारद-लक्ष्मी
अपने उज्ज्वल मेघरथ पर,
पधारो निर्मल नीले पथ पर,
पधारो धवल श्यामल
आलोक में झलमल
वन-गिरि-पर्वत पर।
पधारो शीतल ओसकणों से सज्जित
श्वेत शतदल का मुकुट पहन।

उमड़ी हुई गंगा के तट पर
निभृत निकुंज में बिछा है आसन
झरे मालती फूलों से।
राजहंस घूमते पंख पसारे
तुम्हारे चरणों के नीचे।

अपनी स्वर्ण वीणा के तारों की
गुंजर-तान उठाओ
मृदुल मधुर झंकार में,
हो उठेगा विगलित सस्मित सुर
क्षणिक अश्रुधार में।

रह-रहकर जो पारसमणि
झलक उठती तुम्हारी अलकों में
पलकें करुणासिक्त कर
परस कराओ मेरे मन का
भावनाएँ सकल बन जाएँ सोना
हो जाए आलोकित अंधकार।

Saturday, July 17, 2010

गीत 10 : तोमार सोनार थालाय साजाबो आज

तुम्हारे स्वर्ण-थाल में सजाऊँगा आज
दुःखों की अश्रुधार।
हे माते, गूँथूँगा मैं तुम्हारे
गले का मुक्ताहार।

चरणों से लिपटे हैं
चंद्र-सूर्य बनकर माला,
तुम्हारी छाती पर शोभित मेरे
दुःखों के अलंकार।

धन-धान्य तो सब तेरे ही,
क्या करना है, यह तो बोलो।
देना चाहो तो दे दो मुझको
लेना चाहो तो वापस लो।

दुःख तो मेरे घर की खेती,
असली रत्न, तुझे पहचान-
अपनी कृपा के बदले तू खरीदती
है इसका मुझको अहंकार।

Friday, July 16, 2010

गीत 9 : आनंदरेइ सागर थेके

आनंद-रूपी सागर में
उठा है आज ज्वार।
खींचो-खींचो मिलकर सभी
आज बैठ थामो पतवार।

हो चाहे जितना भी बोझ
पार करेंगे दुःख की नइया,
लहरों से भी जूझेंगे हम
उड़े भले ही प्राण चिरइया।
आनंद-रूपी सागर में
उठा है आज ज्वार।

कौन पुकारता पीछे से रे,
कौन करता है मना,
कर रहा कौन भयभीत आज
भय तो है जाना-पहचाना।

किस शाप, किस ग्रह दोष से
बैठेंगे हम सुख के बालूचर पर,
पाल की रस्सी कसकर पकड़े
चलेंगे गाते-गाते गान।
आनंद-रूपी सागर में
उठा है आज ज्वार।

Thursday, July 15, 2010

गीत 8 : आज धानेर खेते रौद्र छायाय

आज धान के खेत में धूप-छाँव
खेलें खेल लुकाछिपी का।
नीले आकाश में किसने खोली
श्वेत मेघ की नौका।

आज भौंरे भूल गए मधु पीना
उड़ रहे प्रकाश के हो मतवाला,
आज किसलिए नदी तीर पर
चकवा-चकवी का लगा है मेला।

अरे आज तो मैं घर न जाऊँ भैया,
आज तो घर न जाऊँ,
अरे चीरकर आकाश को आज
मैं तो सबकुछ लुट आऊँ।

जैसे ज्वार के जल से उठता है फेन
आज की हवा में छूटती है हँसी,
आज बिताऊँगा अपना मैं सारा समय
निरुद्देश्य बजाते हुए बंशी।

Wednesday, July 14, 2010

गीत 7 : तुमि नव नव रूपे एसो प्राणे

तुम नव-नव रूपों में आओ प्राणों में।
आओ गंधों में वर्णों में, आओ गानों में।

आओ अंगों के पुलकमय स्पर्श में,
आओ चित्त के अमृतमय हर्ष में,
आओ मुग्ध मुदित दो नयनों में।
तुम नव-नव रूपों में आओ प्राणों में।

आओ निर्मल उज्ज्वल कांत
आओ सुंदर स्निग्ध प्रशांत
आओ आओ तुम विचित्रा विधानों में।

आओ दुःख में, सुख में, आओ मर्म में,
आओ नित्य सब दैनिक कर्म में,
आओ सकल कर्म-अवसानों में।
तुम नव-नव रूपों में आओ प्राणों में।

Tuesday, July 13, 2010

गीत 6 : प्रेमे प्राणे गाने गंधे आलोके पुलके

प्रेम, प्राण, गीत, गंध, आलोक और पुलक में
हो रहा प्लावित निखिल द्युलोक और भूलोक में
बरस रहा झर-झर तुम्हारा अमल अमृत।

दिशा-दिशा में टूटे सारे आज बंध
मूर्तिमान हो जाग उठा आनंद
जीवन हो उठा जीवंत कि पाया छककर अमृत।

कल्याण-रस-सरसिज में चेतना मेरी
परमानंदित हो खिल उठी शतदल-सी
निज मधु सारा तेरे चरणों में किया समर्पण।

उदार उषा के अरुणोदय की कांति जब
नीरव आलोक में, जागी उर-प्रांतर में
हट गए अलसाई आँखों के आवरण।

Monday, July 12, 2010

गीत 5 : अंतर मम विकसित करो


अंंतर मेरा विकसित करो
हे अंतरतर!
निर्मल करो, उज्ज्वल करो,
करो हे सुंंदर।
जाग्रत करो उद्यत करो,
निर्भय करो हे।
मंगल करो, निरलस निःसंशय करो हे।
अंतर मेरा विकसित करो
अंतरतर हे!

जोड़ो मुझे सबके संग,
मुक्त करो बंध,
संचरित करो सब कर्मों में
अपने निर्वेद छंद।

निःस्पंदित करो चित्त मेरा अपने पद-पद्मों में
नंदित करो, नंदित करो,
नंदित करो हे।
अंंतर मेरा विकसित करो
अंतरतर हे!

Sunday, July 11, 2010

गीत 4 : विपदे मोरे रक्षा करो

विपदा में रक्षा करना मेरी
यह न मेरी प्रार्थना,
विपदा में बस मुझको न होवे भय।
दुःख-ताप में जब चित्त व्यथित हो
न देना मुझको सांत्वना
दुःख में बस मेरी ही होवे जय।

घटे न आत्मबल मेरा कभी
यदि सहायता मुझको न मिले
जगत-व्यवहार में घाटा उठाऊँ
और वंचना केवल मिले
अपने मन में बस कभी न मानूँ क्षय।

बचा लो मुझे तुम
यह न मेरी प्रार्थना,
बस इतनी शक्ति बची रहे कि पार मैं पा सकूँ।
भार मेरा कम करके
न देना मुझको सांत्वना
बस इतना भर हो कि भार मैं उठा सकूँ।

सुख में भी नतशिर हो
पहचान पाऊँ मुख तुम्हारा
दुःखभरी रात में जिसदिन
निखिल धरा भी करे वंचना
बस तुम्हें लेकर न हो मुझको कोई संशय।

Saturday, July 10, 2010

गीत 3 : कतो अजानारे जानाइले तुमि

कितने अनजानों से तुमने कराया परिचय
कितने ही घरों में दिया आश्रय-
दिलों की दूरी घटाई, बनाया बंधु,
परायों को बनाया भाई।

जाने क्या होगा खाए यह चिंता
पुराने घर को जब छोड़कर जाती,
नूतन में तुम हो नित्य पुरातन
यह बात जो मैं भूल जाती।
दिलों की दूरी घटाई, बनाया बंधु,
परायों को बनाया भाई।

जीवन-मरण में, निखिल भुवन में
जब-जहाँ भी तुम मुझे अपनाओगे,
ओ जनम-जनम के मेरे परिचित,
सबसे तुम मुझे मिलाओगे।

तुम्हें जानकर रहे न कोई पर,
नहीं वर्जना और न कोई डर,
रहते तुम जाग्रत सबको मिलाकर-
पाया ऐसा ही तुमको देखा निरंतर।
दिलों की दूरी घटाई, बनाया बंधु,
परायों को बनाया भाई।

Friday, July 9, 2010

गीत 2 : आमि बहु वासनाय प्राणपणे चाइ

मुझे बहुत-सी वासनाएँ प्राणप्रिय हैं
बचाया तुमने उनसे मुझको कर वंचित।
निष्ठुर कृपा तुम्हारी है यह
मेरे जीवन भर का संचित।

न चाहने पर भी मुझे जो दिया दान,
आकाश प्रकाश तन मन प्राण,
अपनाकर मुझको दिन-प्रतिदिन तुम
उस महादान के योग्य बना
अति-इच्छा के संकट से
करते हो मुझको रक्षित।

मैं कभी भटकती, कभी राह चलती
तुम्हारी ही बस राह पकडे़-
पर तुम निष्ठुर, सम्मुख होकर भी
हो जाते हो मुझसे परे।

है तुम्हारी यह दया मैं जानती हूँ,
लौटाते हो जबकि तुम्हारी हूँ प्रतीक्षित,
मिलोगे इस जीवन की पूर्णता पर
अपने मिलन के योग्य बना
अधूरी इच्छा के संकट से
करते हो मुझको रक्षित।

Thursday, July 8, 2010

गीत 1 : आमार माथा नत करे दाओ

नत कर दो तुम मस्तक मेरा
अपनी चरणधूलि के तल में।
सकल अहंकार तुम मेरे
डूबो दो अँसुवन के जल में।

आत्ममुग्ध मैं गर्वित होकर
करती बस निज का अपमान,
आत्मकेन्द्रित सोच में पड़कर
मरूँ हर पल अपने चक्कर में।
सकल अहंकार तुम मेरे
डूबो दो अँसुवन के जल में।

चाहे मैं जो भी काम करूँ
आत्म-प्रचार से रहूँ दूर-
जीवन मेरा अपनाकर तुम
इच्छा अपनी करो पूर्ण।

मैं चाहूँ तेरी परम शांति,
प्राणों में तेरी परम कांति,
सहारा देकर खड़े रहो तुम
हृदय-कमल के शतदल में।

सकल अहंकार तुम मेरे
डूबो दो अँसुवन के जल में।


बांग्‍ला भाषा में लिंग और वचन निरपेक्ष क्रियाऍं होती हैं। इसलिए गीतांजलि के गीतों का अनुवाद करते हुए संबोधनकर्ता और संबोध्‍य के लिंग-निर्णय करना चुनौतीभरा काम है। लेकिन जब हम स्‍वयं कवि द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद को देखते हैं तो यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि उनका संबोध्‍य पुंलिंग ही है, क्‍योंकि रवीन्‍द्रनाथ ने संबोध्‍य के लिए प्रयुक्‍त वह, उसका जैसे शब्‍दों के लिए He अंग्रेजी शब्‍द का प्रयोग किया है। उनके गीतों में अन्‍यत्र यह साक्ष्‍य मिलता है कि उनके गीतों का संबोधनकर्ता स्‍त्रीलिंग है और इसलिए परमात्‍मा के प्रति उनकी निष्‍ठा और मिलन की आकांक्षा स्‍त्रीरूप आत्‍मा की है। यही कारण है कि मैंने गीतांजलि के गीतों का अनुवाद करते हुए संबोध्‍य को पुंलिंग और संबोधनकर्ता को स्‍त्रीलिंग माना है। अनुवाद क्रम में संबंधित साक्ष्‍यों की ओर भी संकेत करूंगा।

Wednesday, July 7, 2010

बांग्‍ला एवं अंग्रेजी 'गीतांजलि'

प्राय: साधारण पाठकों में यह भ्रम पाया जाता है कि रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर की जिस कृति को नोबेल पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ, वह उनकी बांग्‍ला कृति का अविकल अंग्रेजी अनुवाद है, लेकिन यह तथ्‍य सही नहीं है। वास्‍तविकता यह है कि अंग्रेजी गीतांजलि की 103 रचनाओं में से केवल 53 रचनाऍं ही रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर ने अपनी बांग्‍ला गीतांजलि से लिए हैं तथा 1 'चैताली', 1 'कल्‍पना', 15 'नैवेद्य', 1 'स्‍मरण', 3 'शिशु', 11 'खेया' से, जबकि अन्‍य रचनाऍं विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं से चयित हैं। असंकलित रचनाओं से 16 बाद में 'गीतिमाल्‍य' में और 1-1 'अचलायतन' एवं 'उत्‍सर्ग' नामक संकलनों में संगृहीत हुईं।
इसी प्रकार अंग्रेजी पाठ से अपरिचित पाठकों में से अधिकांश यह समझते हैं नोबेल पुरस्‍कार प्राप्‍त 'गीतांजलि' भी बांग्‍ला 'गीतांजलि' की तरह अंग्रेजी छंदबद्ध पद्यकृति है, लेकिन यह बात भी तथ्‍यों से परे है। वास्‍तव में यह अंग्रेजी गद्य में है। इसका प्रभाव भले ही काव्‍यात्‍मक है। यहॉं यह बात भी उल्‍लेखनीय है कि अंग्रेजी गीतांजलि की विश्‍वव्‍यापी स्‍वीकृति एक अनूदित कृति के रूप में न होकर मौलिक कृति के रूप में है। इसका प्रमुख कारण संभवत: यही है कि अपने बांग्‍ला गीतों को अंग्रेजी में प्रस्‍तुत करने क्रम में कवि ने न केवल रचना की मूल विधा से स्‍वयं को स्‍वतंत्र किया है, वरन संप्रेषण के स्‍तर पर भी मूल शब्‍द प्रयोगों के बंधन में न बंधकर केन्‍द्रीय भाव मात्र की रक्षा करते हुए प्रकारांतर से मानों एक नई भाषा में नई रचना को ही जन्‍म दिया है।
यही कारण है कि 1915 ई. में प्रकाशित प्रथम हिन्‍दी अनुवाद से लेकर 'गीतांजलि' के अद्यतन हिन्‍दी अनुवाद भी पद्य और गद्य, दोनों ही विधाओं में प्राप्‍त होते हैं। इनमें से कुछ अनुवाद मूल अंग्रेजी से किए गए हैं, जबकि कुछ मूल बांग्‍ला से। मूल अंग्रेजी से किए गए सभी अनुवाद गद्य में हैं, लेकिन मूल बांग्‍ला से किए अनुवादों में से कुछ पद्य में हैं, तो कुछ गद्य में। कुछेक अनुवादों में केवल मूल अंग्रेजी में संकलित गीतों को मूल बांग्‍ला से अनुवाद कर प्रस्‍तुत किया गया है।
हिन्‍दी में 'गीतांजलि' के अब तक 38 अनुवाद और 10 देवनागरी लिप्‍यंतर प्रकाशित हुए हैं। 2010 बांग्‍ला 'गीतांजलि' के प्रकाशन की शतवार्षिकी है। इस अवसर पर इंटरनेट के पाठकों के लिए बांग्‍ला 'गीतांजलि' का एक और हिन्‍दी अनुवाद प्रस्‍तुत करने का संकल्‍प मैंने लिया है। आशा है, सबके द्वारा इसे पसंद किया जाएगा। प्रतिक्रियाओं और सुझावों का निरंतर स्‍वागत है।