नत कर दो तुम मस्तक मेरा
अपनी चरणधूलि के तल में।
सकल अहंकार तुम मेरे
डूबो दो अँसुवन के जल में।
आत्ममुग्ध मैं गर्वित होकर
करती बस निज का अपमान,
आत्मकेन्द्रित सोच में पड़कर
मरूँ हर पल अपने चक्कर में।
सकल अहंकार तुम मेरे
डूबो दो अँसुवन के जल में।
चाहे मैं जो भी काम करूँ
आत्म-प्रचार से रहूँ दूर-
जीवन मेरा अपनाकर तुम
इच्छा अपनी करो पूर्ण।
मैं चाहूँ तेरी परम शांति,
प्राणों में तेरी परम कांति,
सहारा देकर खड़े रहो तुम
हृदय-कमल के शतदल में।
सकल अहंकार तुम मेरे
डूबो दो अँसुवन के जल में।
बांग्ला भाषा में लिंग और वचन निरपेक्ष क्रियाऍं होती हैं। इसलिए गीतांजलि के गीतों का अनुवाद करते हुए संबोधनकर्ता और संबोध्य के लिंग-निर्णय करना चुनौतीभरा काम है। लेकिन जब हम स्वयं कवि द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद को देखते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका संबोध्य पुंलिंग ही है, क्योंकि रवीन्द्रनाथ ने संबोध्य के लिए प्रयुक्त वह, उसका जैसे शब्दों के लिए He अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया है। उनके गीतों में अन्यत्र यह साक्ष्य मिलता है कि उनके गीतों का संबोधनकर्ता स्त्रीलिंग है और इसलिए परमात्मा के प्रति उनकी निष्ठा और मिलन की आकांक्षा स्त्रीरूप आत्मा की है। यही कारण है कि मैंने गीतांजलि के गीतों का अनुवाद करते हुए संबोध्य को पुंलिंग और संबोधनकर्ता को स्त्रीलिंग माना है। अनुवाद क्रम में संबंधित साक्ष्यों की ओर भी संकेत करूंगा।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
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