आषाढ़-संध्या घिर आई,
दिन फिर गया गुजर।
बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।
घर के कोने में बैठ अकेले
यह सोचूँ मन ही मन मैं
भीगी हवा जूही के वन में
कौन-सी बात कहे जाकर।
बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।
ज्वार उठा है अंतर में,
खोज न पाऊँ कूल।
रोते प्राण, सुरभि से जब
भीगे वन के फूल।
अँधेरी रात के इन प्रहरों में,
गाऊँ मैं किन सुरों में,
हूँ मैं आकुल-व्याकुल
सब भूल जाऊँ कहाँ खोकर।
बंधनहारा वृष्टिधारा
झर रही रह-रहकर।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
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