तुम कैसे गाते हो गान, गुणी,
अवाक् हो सुनूँ, केवल सुनूँ।
सुर का प्रकाश छाया भुवन में,
चली सुर की हवा बहती गगन में,
टूटते पाषाण व्याकुल वेग में
बहती ही जाए सुरों की सुरधुनी।
जी चाहता उसी सुर में गाऊँ।
कंठ में अपने सुर खोज न पाऊँ।
कहना जो चाहूँ, कह न पाऊँ,
पराजय मानने में प्राण मेरे रोएँ,
डाल दिया तुमने मुझे किस फंदे में
बुनकर सुरों का जाल मेरे चतुर्दिक्।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
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