पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Wednesday, July 28, 2010

गीत 21 : जानि जानि कोन आदिकाल हते

जानती मुझे किस आदिकाल से
बहा रखा इस जीवन-प्रवाह में,
प्रिय, सहसा छोड़ गए कितने ही
घर, पथ, प्राणों में इतना हर्ष।

असंख्य बार तुम मेघों की ओट में
मधुर मुस्कान के साथ हुए खड़े,
अरुण किरणों के साथ बढ़ाए चरण
ललाट पर किया शुभ स्पर्श।

संचित हैं इन आँखों में
असंख्य काल और लोकों में
असंख्य नवीन आलोकों में
अरूप के असंख्य रूप-दर्श।

कोई न जाने, कितने युग-युगों से,
भर-भर उमड़ रहा प्राणों में
असंख्य सुख-दुःख और प्रेम-गानों में
बरस रहा ऐसा अमृत-रस।

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