जानती मुझे किस आदिकाल से
बहा रखा इस जीवन-प्रवाह में,
प्रिय, सहसा छोड़ गए कितने ही
घर, पथ, प्राणों में इतना हर्ष।
असंख्य बार तुम मेघों की ओट में
मधुर मुस्कान के साथ हुए खड़े,
अरुण किरणों के साथ बढ़ाए चरण
ललाट पर किया शुभ स्पर्श।
संचित हैं इन आँखों में
असंख्य काल और लोकों में
असंख्य नवीन आलोकों में
अरूप के असंख्य रूप-दर्श।
कोई न जाने, कितने युग-युगों से,
भर-भर उमड़ रहा प्राणों में
असंख्य सुख-दुःख और प्रेम-गानों में
बरस रहा ऐसा अमृत-रस।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
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