पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Tuesday, April 30, 2019

गीत 77 : चिरजनमेर वेदना

चिर जन्म की वेदना,
अरे, चिर जन्म की साधना, 
धधक कर जले तुम्हारी आग 
कहकर दुर्बल कृपा न करना 
हो जितना भी ताप, चाहूँँ सहना 
जलकर खाक हो जाए वासना।

पुकार जो अमोघ, करो वही पुकार
अब कोई देरी क्यों इसमें?
जो बंधन छाती से है जड़ा
वह छिन्न-भिन्न पड़ जाए पीछे 
गरज-गरज कर शंख तुम्हारा
बज उठे जोर से इस बार 
छूटे गर्व और निद्रा टूटे 
जागे तीव्र चेतना।

Monday, April 29, 2019

गीत 76 : सभा जखन भाङबे तखन

सभा जब खत्म होगी तब
अंतिम गान क्या गा पाऊँँगी
हो सकता तब बोल न फूटेंं
मुख निहारती रह जाऊँँगी।
अभी भी सुर सध न पाए
बज पाएगी क्या वह रागिनी
सुनहरी तान में क्या प्रेम-व्यथा
सांध्य गगन में बिखर पाएगी।

इतने दिन साधा जो सुर
रात-दिन हरेक क्षण में।
यदि भाग्यवश साधना
समाप्त हो सके इसी जीवन में--
इस जीवन की पूर्ण वाणी
मानस वन के सभी कमल
उत्सर्ग करूँँ सागर जल में
विश्वगान की बहती धारा में।

Sunday, April 28, 2019

गीत 75 : दया दिये हवे गे मोर

दया दिखाकर धोना होगा 
तुमको मेरा जीवन।
नहीं तो कैसे छू पाऊँगा 
मैं तुम्हारे चरण। 
देता जब तुमको पूजा की डाली
बाहर आ जाती सारी काली
इसीलिए रख न पाता प्राण
मैं तुम्हारे चरण। 

इतने दिन तो नहीं थी मुझको 
कोई व्यथा।
सब अंगों में छाई थी 
मलिनता।
आज इस शुभ्र गोद के नीचे 
व्याकुल हृदय रो-रो मरे। 
मत करने दो और मुझे तुम 
धूलि में शयन।

Saturday, April 27, 2019

गीत 74 : वज्रे तोमार बाजे वंशी

वज्र में बजे वंशी तुम्हारी,
है क्या वह सहज गान। 
उसी सुर में जाग सकूँँ,
मुझको दो ऐसे कान।

भूलूँँगा न अब ऐसे ही,
उसी प्राण में मत्त हो उठेगा मन 
मृत्यु बीच ढँका हुआ है
जो अंतहीन प्राण। 

उस झंझा को सहूँ आनंद मेंं
चित्त-वीणा के तार पर
सप्तसिंधु दशदिगंत में 
नचाते जिस झंकार पर।

विच्छिन्न कर आराम से 
उसी गहनता की ओर ले चलो मुझे 
अशांति के अंतर में है जहाँ
शांति सु-महान।

Friday, April 26, 2019

गीत 73 : सबा ह'ते राखबो तोमाय

सबसे रखूँ तुम्हें
बचाकर ।
ऐसा पूजाघर पाऊँ कहाँ
अपने घर ।

यदि मेरे दिन–रात में
हों मेरे अपने सब साथ में
दया कर आओ पकड़ में तो
रखूँगा धर ।

मान दे सकूँ ऐसा मानी
मैं तो नहीं
पूजा का भी कोई आयोजन
नहीं है स्वामी ।

यदि तुमसे है प्यार
बज उठेगी स्वयं वंशी,
खिल उठेंगे स्वयं कुसुम
कानन भर ।

Thursday, April 25, 2019

गीत 72 : जत' बार आलो ज्वालाते चाइ

जितनी बार जलाना चाहूँँ दीपक
बुझ जाता है बार-बार।
जीवन में मेरे, तुम्हारे आसन पर
गहन कितना अंधकार।

है लता जो, सूख चुकी जड़ उसकी
कलियाँँ निकलें केवल, खिलते नहीं है फूल
तभी तो मेरे जीवन में तेरी सेवा बस
वेदना के उपहार।

पूजा गौरव पुण्य विभव
कुछ नहीं, नहीं लेश-
यह तेरा पुजारी आया है पहनकर
लज्जास्पद दीन वेश।

उसके उत्सव में आता न कोई
बजती न वंशी, न सजता है घर
रोकर तुम्हें ले आया बुलाकर
भग्न मंदिर-द्वार पर।

Wednesday, April 24, 2019

गीत 71 : ओगो मौन, ना जदि कओ

अरे ओ मौन, यदि न बोलो 
करो न कोई बात।
हृदय में भरकर वहन करूँँगा 
तुम्हारी नीरवता।

स्तब्ध होकर पड़ा रहूँगा
रजनी रहती जिस प्रकार 
जलाकर तारे निर्निमेष 
धैर्य धारे अवनता।

होगा-होगा, होगा प्रभात
छँट जाएगा अँँधेरा। 
आएगी आकाश फाड़कर 
तुम्हारी वाणी स्वर्णधारा।

तब घोंसले में पाखी के मेरे 
तुम्हारी भाषा में होगा गान 
खिलाएगी फूल तुम्हारी तान से 
मेरी वनलता।

Tuesday, April 23, 2019

गीत 70 : चित्त आमार हारालो आज

खोया आज चित्त मेरा  
मेघों के मध्य, 
भागा जा रहा वह किधर 
कौन जाने किधर।

बार-बार उसकी वीणा के तारों पर  
बिजली करती आघात
हृदय मध्य बज रहा वज्र 
कैसी है यह महातान।

पुंज-पुंज, भार-भार में 
निबिड़ नीले अंधकार में 
लिपट गया अंगों से मेरे,
बिखर गया प्राणों में।

नृत्य में मत्त पगली हवा 
बनी है मेरी संगी-साथी
अट्टहास भर दौड़ी किधर वह-
वर्जना नहीं मानती

Monday, April 22, 2019

गीत 69 : ओइ रे तरी दिलो खुले

अरे रे,  खोल दी उसने नाव।
कौन उठाएगा तेरा भार।

आगे ही जब जाना है रे
रहने दे, पिछला पड़ा ही पीछे-
यदि उसे भी पीठ पर ढोने चला,
अकेला पड़ा रह जाएगा किनारे।

घर का बोझा खींच-खींचकर
पार-घाट रखा ले आकर
तभी तो तुझको बारंबार
लौटना पड़ा-यह भूल गया

पुकार रे, माझी को फिर बुला
तेरा बोझ बहता है, बह जाने दे।
इस जीवन को उजाड़कर
समर्पित कर उसके चरण-मूल में।