जितनी बार जलाना चाहूँँ दीपक
बुझ जाता है बार-बार।
जीवन में मेरे, तुम्हारे आसन पर
गहन कितना अंधकार।
है लता जो, सूख चुकी जड़ उसकी
कलियाँँ निकलें केवल, खिलते नहीं है फूल
तभी तो मेरे जीवन में तेरी सेवा बस
वेदना के उपहार।
पूजा गौरव पुण्य विभव
कुछ नहीं, नहीं लेश-
यह तेरा पुजारी आया है पहनकर
लज्जास्पद दीन वेश।
उसके उत्सव में आता न कोई
बजती न वंशी, न सजता है घर
रोकर तुम्हें ले आया बुलाकर
भग्न मंदिर-द्वार पर।
बुझ जाता है बार-बार।
जीवन में मेरे, तुम्हारे आसन पर
गहन कितना अंधकार।
है लता जो, सूख चुकी जड़ उसकी
कलियाँँ निकलें केवल, खिलते नहीं है फूल
तभी तो मेरे जीवन में तेरी सेवा बस
वेदना के उपहार।
पूजा गौरव पुण्य विभव
कुछ नहीं, नहीं लेश-
यह तेरा पुजारी आया है पहनकर
लज्जास्पद दीन वेश।
उसके उत्सव में आता न कोई
बजती न वंशी, न सजता है घर
रोकर तुम्हें ले आया बुलाकर
भग्न मंदिर-द्वार पर।
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