वज्र में बजे वंशी तुम्हारी,
है क्या वह सहज गान।
उसी सुर में जाग सकूँँ,
मुझको दो ऐसे कान।
भूलूँँगा न अब ऐसे ही,
उसी प्राण में मत्त हो उठेगा मन
मृत्यु बीच ढँका हुआ है
जो अंतहीन प्राण।
उस झंझा को सहूँ आनंद मेंं
चित्त-वीणा के तार पर
सप्तसिंधु दशदिगंत में
नचाते जिस झंकार पर।
विच्छिन्न कर आराम से
उसी गहनता की ओर ले चलो मुझे
अशांति के अंतर में है जहाँ
शांति सु-महान।
है क्या वह सहज गान।
उसी सुर में जाग सकूँँ,
मुझको दो ऐसे कान।
भूलूँँगा न अब ऐसे ही,
उसी प्राण में मत्त हो उठेगा मन
मृत्यु बीच ढँका हुआ है
जो अंतहीन प्राण।
उस झंझा को सहूँ आनंद मेंं
चित्त-वीणा के तार पर
सप्तसिंधु दशदिगंत में
नचाते जिस झंकार पर।
विच्छिन्न कर आराम से
उसी गहनता की ओर ले चलो मुझे
अशांति के अंतर में है जहाँ
शांति सु-महान।
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