पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Saturday, April 27, 2019

गीत 74 : वज्रे तोमार बाजे वंशी

वज्र में बजे वंशी तुम्हारी,
है क्या वह सहज गान। 
उसी सुर में जाग सकूँँ,
मुझको दो ऐसे कान।

भूलूँँगा न अब ऐसे ही,
उसी प्राण में मत्त हो उठेगा मन 
मृत्यु बीच ढँका हुआ है
जो अंतहीन प्राण। 

उस झंझा को सहूँ आनंद मेंं
चित्त-वीणा के तार पर
सप्तसिंधु दशदिगंत में 
नचाते जिस झंकार पर।

विच्छिन्न कर आराम से 
उसी गहनता की ओर ले चलो मुझे 
अशांति के अंतर में है जहाँ
शांति सु-महान।

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