घन के ऊपर घन घनघोर
करते आ रहे अँधेरा-
बिठा रखा है मुझको क्यों
द्वार के पास अकेला।
व्यस्त दिनों में काम-धाम में
रहती लोगों के संग-साथ में,
आज जो बैठी हूँ मैं यहाँ
लेकर बस तेरी ही आशा
बिठा रखा है मुझको क्यों
द्वार के पास अकेला।
यदि न तुम दर्शन दो
करो मेरी अवहेला,
फिर कैसे कटेगी मेरी
ऐसी बादल-बेला।
दूर तक बिछाए पलक पाँवड़े
देखती बस तुम्हारी ही राह
भटकते रो-रोकर प्राण मेरे
और यह तूफानी हवा।
बिठा रखा है मुझको क्यों
द्वार के पास अकेला।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
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