पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Wednesday, June 22, 2011

गीत 61 : से जे पाशे एसे बसे छिलो

वह तो पास आकर बैठा था
तब भी जागी नहीं।
कैसी नींद थी तुम्‍हारी,
हतभागिनी।

आया था नीरव रात में
वीणा थी उसके हाथ में
सपने में ही छेड़ गया
गहन रागिनी।

जगने पर देखा, दक्षिणी हवा
करती हुई पागल
उसकी गंध फैलाती हुई
भर रही अंधकार।

क्‍यों मेरी रात बीती जाती
साथ पाकर भी पास न पाती
क्‍यों उसकी माला का परस
वक्षों को हुआ नहीं।

2 comments: