और बचा न दिन, उतरी छाया
धरती पर।
अब कलशे भरने को चल रे
घाट पर।
जलधारा के कलकल स्वर में
सांध्य गगन करता आकुल,
अरे पुकारे उन्हीं स्वरों में
पथ पर।
कलशे भरने को चल रे
घाट पर।
अब विजन पथ पर न कोई
आता-जाता-
अरे प्रेम-नदी में ज्वार उठा,
उत्ताल हवा।
नहीं जानती, लौटूँगी या नहीं,
आज होगा किससे परिचय,
घाट पर वही अजाना बजाए वीणा
नौका पर।
कलशे भरने को चल रे
घाट पर।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
बहुत खूब।
ReplyDelete………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्ललज्ज कारनामा.....
धन्यवाद
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