जो खो जाता है, उसे बैठकर
जोगूँ और कितना।
अब रात में जाग न सकती नाथ
संभव भी न सोचना।
दिन-रात हूँ मैं अनवरत
बंद किए हुए अपना द्वार,
आना जो चाहे, शंका में उसे
भगा देती बार-बार।
तभी तो आना किसी का हुआ नहीं
बस मेरे ही घर।
आनंदमय भुवन तुम्हारा
रहे खेलता बाहर।
जानूँ तुम्हें भी राह न मिलती,
लौट जाते हो आ-आकर,
जिसे रखना चाहूँ, वह भी न रहे-
मिट्टी में मिल जाए।
जोगूँ और कितना।
अब रात में जाग न सकती नाथ
संभव भी न सोचना।
दिन-रात हूँ मैं अनवरत
बंद किए हुए अपना द्वार,
आना जो चाहे, शंका में उसे
भगा देती बार-बार।
तभी तो आना किसी का हुआ नहीं
बस मेरे ही घर।
आनंदमय भुवन तुम्हारा
रहे खेलता बाहर।
जानूँ तुम्हें भी राह न मिलती,
लौट जाते हो आ-आकर,
जिसे रखना चाहूँ, वह भी न रहे-
मिट्टी में मिल जाए।
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