पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Wednesday, August 25, 2010

गीत 36 : पारबि ना कि जोग दिते एइ छंदे रे

बिठा न पाओगे लय-ताल क्या इस छंद में,
इस गिर जाने, बह जाने
टूट जाने के आनंद में।

कान लगाकर सुनो न
दिशा-दिशा में, गगन-बीच भी
कालवीणा पर क्या सुर बाजे
तपन तारा-चाँद में
यह आग जलाकर धू-धूकर
जल जाने के आनंद में।

पगलानेवाली गान की तान में
दौड़े यह कहाँ, कोई न जाने,
पीछे मुड़कर न देखना चाहे
रहे न बँधकर किसी बंध में
इस लुट जाने, छूट जाने
चलने के आनंद में।

उसी आनंद-चरण-पथ में
षड् ऋतुएँ हैं उन्मत्त नृत्य में,
धरती प्लावित होती जाए
स्वागत-गीत की गंध में
इस फेंके जाने, छोड़े जाने
मर जाने के आनंद में।

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