यहाँ जो गीत गाने आई थी मैं
वह गीत गाया जा न सका-
आज भी सुर-साधना ही हो रही बस
मैं तो चाहूँ गीत गाना।
मुझसे सधता ही नहीं वह सुर
मुझसे उठते नहीं वे बोल,
केवल प्राणों के ही बीच उठी है
गाने की व्याकुलता।
आज भी खिला ही नहीं वह फूल
बस बहती एक-सी हवा।
मैंने देखा नहीं मुख उसका
मैंने सुनी न उसकी वाणी,
केवल पल-पल सुनती उसकी
पैरों की बस ध्वनि।
मेरे द्वार के सामने से ही वह
करता है आना-जाना।
केवल मैं आसन ही रही बिछाती
गुजर गया सारा दिन-
घर में दीप जलाना हुआ नहीं है
कैसे जाए उसे पुकारा।
हूँ उसको पाने की आशा में
हुआ न उससे मिलना।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत
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