पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Wednesday, September 8, 2010

गीत 44 : जगते आनंद-यज्ञे आमार निमंत्रण

जगत के आनंद-यज्ञ में मिला निमंत्रण।
धन्य हुआ, धन्य हुआ, मेरा मानव-जीवन।

रूपनगर में नयन मेरे
घूम-घूमकर साध मिटाते,
कान मेरे गहन सुरों में
हुए हैं मगन।

अपने यज्ञ में तुमने भार दिया है
मैं बजाऊँ वंशी।
पिरोकर गान-गान में घूमूँ
रुदन-हँसी प्राणों की।

अब घड़ी आ गई है क्या?
सभा में जाकर तुमको देखूँ
‘जयध्वनि’ करता जाऊँ,
है मेरा यही निवेदन।

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