रूप-सागर में लगाकर डुबकी
अरूप रतन की आशा करती,
भटकूँगी अब न घाट-घाट पर
उतारने को अपनी जर्जर नौका।
इस बार घड़ी वह आ ही जाए
लहरों से टकराव, अब नहीं बस,
इस बार सुधा के तल में जाकर
मरकर भी मुझको अमर है बनना।
जो गान नहीं सुना कानों से
वह गान जहाँ नित्य ही गूँजे
जाऊँगी लेकर प्राणों की वीणा
उसी अतल में, बीच सभा में।
चिरंतन सुरों को साधकर
अंत में अपना रुदन पिरोकर
नीरव है जो, पैरों में उसके
धर दूँगी यह नीरव वीणा।
अरूप रतन की आशा करती,
भटकूँगी अब न घाट-घाट पर
उतारने को अपनी जर्जर नौका।
इस बार घड़ी वह आ ही जाए
लहरों से टकराव, अब नहीं बस,
इस बार सुधा के तल में जाकर
मरकर भी मुझको अमर है बनना।
जो गान नहीं सुना कानों से
वह गान जहाँ नित्य ही गूँजे
जाऊँगी लेकर प्राणों की वीणा
उसी अतल में, बीच सभा में।
चिरंतन सुरों को साधकर
अंत में अपना रुदन पिरोकर
नीरव है जो, पैरों में उसके
धर दूँगी यह नीरव वीणा।
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