पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Friday, September 24, 2010

गीत 54 : आज गंध-विधुर समीरणे

आज सुगंधियुक्त समीरण में
किसे खोजते भटकूँ वन-वन में।

आज क्षुब्ध नीलाकाश में
कैसा यह चंचल क्रंदन गूँजे।
सुदूर दिगंतर में सकरुण संगीत
कर रहा विचलित मुझे-
मैं खोजूँ किसे अंतर में, मन में
सुगंधियुक्त समीरण में।

ओ रे जानूँ कि नंदन राग में
सुख में उत्सुक यौवन जागे।

आज आम्र मुकुल-सुगंध में
नव पल्लव-मर्मर-छंद में
चंद्र-किरण-सुधा-सिंचित अंबर में
अश्रु-सरस महानंद में
मैं पुलकित किसकी छुअन में
सुगंधियुक्त समीरण में।

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