एकाकी हैं जहाँ जागते
देवता निभृत प्राणों के,
भक्त, वहीं खोलो द्वार
आज करूँगी दर्शन उनके।
सारा दिन केवल बाहर ही
घूम-घूम किसको चाहूँ रे,
सांध्य-बेला की आरती
सीख नहीं मैं पाई रे।
तुम्हारे जीवन के प्रकाश से
अपना जीवन-दीप जलाऊँ
हे पुजारी, निभृत में आज
मैं अपनी थाल सजाऊँ।
जहाँ पर निखिल की साधना
करे पूजालोक की रचना
वहीं पर मैं भी आँकूँगी
बस एक ज्योति रेखा।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
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