आकाशतल में फूट पड़ा है
आलोकमान शतदल।
पंखुड़ियाँ सब एक-एक कर
बिखर गईं दिक्-दिगंतर,
ढँक गया अंधकार का
निबिड़ काला जल।
ठीक बीच में स्वर्णकोष के
आनंदित बैठी हूँ भाई
मुझे घेरकर बिखरे धीरे
आलोकमान शतदल।
आकाश में तो लहराकर
बहती जाए हवा।
चतुर्दिक गूँजें गान,
चतुर्दिक नाचें प्राण,
गगन-भरा यह परश
छूए पूरी काया।
इस प्राण-सागर में डुबकी लेकर
प्राणों को भर रहा वक्ष में,
लौट-लौटकर, मुझे घेरकर
बहती जाए हवा।
दशों दिशाएँ फैला आँचल
धरा ने अपनी गोद बनाई।
जीव हैं जो भी जहाँ
सबको वह बुलाके लाती,
सबके हाथों, सबके पात्रों में
अन्न है वह बाँट देती।
गीत-गंध से भर गया मन,
महानंद में बैठी हूँ मैं
मुझे घेरकर आँचल फैला
धरा है गोद देती।
आलोक, तुमको करूँ प्रणाम
क्षमा करो, मेरा अपराध।
ललाट पर मेरे अंकित कर दो
परमपिता का आशीर्वाद।
हवा, तुमको करूँ प्रणाम
दूर करो मेरा अवसाद।
संचरित हो मेरी सकल देह में
परमपिता का आशीर्वाद।
धरा, तुमको करूँ प्रणाम
मिटा दो मेरी सारी साध।
घर भर के लिए फलित हो
परमपिता का आशीर्वाद।
बांग्ला भाषा में गीत-संग्रह 'गीतांजलि' के रचयिता विश्वप्रतिष्ठ कवि, कथाकार, नाटककार, शिक्षाशास्त्री, विचारक और चित्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। इसका प्रथम प्रकाशन 1910 ई. के सितंबर महीने में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा किया गया था। स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी गद्य में रूपांतरित इस कृति को 1913 ई. के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। यहॉं बांग्ला 'गीतांजलि' के गीतों के हिन्दी अनुवाद की क्रमवार प्रस्तुति की जा रही है। ये अनुवाद देवेन्द्र कुमार देवेश द्वारा किए गए हैं।
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