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Thursday, September 16, 2010

गीत 48 : आकाशतले उठलो फुटे

आकाशतल में फूट पड़ा है
आलोकमान शतदल।
पंखुड़ियाँ सब एक-एक कर
बिखर गईं दिक्-दिगंतर,
ढँक गया अंधकार का
निबिड़ काला जल।

ठीक बीच में स्वर्णकोष के
आनंदित बैठी हूँ भाई
मुझे घेरकर बिखरे धीरे
आलोकमान शतदल।

आकाश में तो लहराकर
बहती जाए हवा।
चतुर्दिक गूँजें गान,
चतुर्दिक नाचें प्राण,
गगन-भरा यह परश
छूए पूरी काया।

इस प्राण-सागर में डुबकी लेकर
प्राणों को भर रहा वक्ष में,
लौट-लौटकर, मुझे घेरकर
बहती जाए हवा।

दशों दिशाएँ फैला आँचल
धरा ने अपनी गोद बनाई।
जीव हैं जो भी जहाँ
सबको वह बुलाके लाती,
सबके हाथों, सबके पात्रों में
अन्न है वह बाँट देती।

गीत-गंध से भर गया मन,
महानंद में बैठी हूँ मैं
मुझे घेरकर आँचल फैला
धरा है गोद देती।

आलोक, तुमको करूँ प्रणाम
क्षमा करो, मेरा अपराध।
ललाट पर मेरे अंकित कर दो
परमपिता का आशीर्वाद।

हवा, तुमको करूँ प्रणाम
दूर करो मेरा अवसाद।
संचरित हो मेरी सकल देह में
परमपिता का आशीर्वाद।

धरा, तुमको करूँ प्रणाम
मिटा दो मेरी सारी साध।
घर भर के लिए फलित हो
परमपिता का आशीर्वाद।

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