पढि़ए प्रतिदिन : एक नया गीत

Monday, September 13, 2010

गीत 46 : आसनतलेर माटिर प'रे लुटिये रबो

आसन तले माटी में ही रहूँगी लोटती।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।

क्यों मुझको देकर मान, रखते हो इतनी दूर,
जनम-जनम तक ऐसे ही, रखना नहीं भुलाए,
जैसे-तैसे पकड़कर-खींचकर डालो अपने पैरों में।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।

मैं तुम्हारे यात्राी दल में रहूँगी पीछे
मुझको देना स्थान, तुम सबसे नीचे।

कितने ही लोग दौड़े आते पाने को प्रसाद,
मुझे न कुछ भी चाहिए, बस रहूँ पास-
सबके अंत में जो भी बचे, बस लूँगी वही।
होऊँगी धूल-धूसरित चरण-धूलि में तुम्हारी।

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