चाहती, मैं तुम्हीं को चाहती
तुम्हीं को चाहती मैं--
यह बात सदा है मन में
पर कह न पाती मैं ।
और जो कुछ वासना में
घूमता–फिरता रात–दिन
झूठ है वह, झूठ है सब, बस
तुम्हीं को चाहती मैं ।
जैसे रात छिपाए रखती
आलोक की प्रार्थना ही--
वैसे ही गहन मोहवश
तुम्हीं को चाहती मैं ।
झंझा जब भंग करती शांति
वह भी प्राणों में चाहे शांति,
वैसे ही तुम पर आघात कर भी
तुम्हीं को चाहती मैं ।
तुम्हीं को चाहती मैं--
यह बात सदा है मन में
पर कह न पाती मैं ।
और जो कुछ वासना में
घूमता–फिरता रात–दिन
झूठ है वह, झूठ है सब, बस
तुम्हीं को चाहती मैं ।
जैसे रात छिपाए रखती
आलोक की प्रार्थना ही--
वैसे ही गहन मोहवश
तुम्हीं को चाहती मैं ।
झंझा जब भंग करती शांति
वह भी प्राणों में चाहे शांति,
वैसे ही तुम पर आघात कर भी
तुम्हीं को चाहती मैं ।
No comments:
Post a Comment