तुम कहते जब, गाओ गान
छाती मेरी हो उठती गर्वित,
छलक पड़तींं दोनों आँँखें मेरी
अनिमेष ताकतींं केवल तेरा मुख।
कठिन कटु जो कुछ मेरे प्राणों में
गलना चाहेंं अमृतमय गानों में,
सब साधना आराधना मेरी
पाखी-सा उड़ना चाहेंं सुखपूर्वक।
तृप्त हो तुम मेरे गीत-राग में
अच्छा लगता, तुमको लगता अच्छा
जानूँँ मैं इन्हीं गान के नाते
बैठ सका मैं तुम्हारे सम्मुख।
मन से जिसका छोर न पाता
गान से छूता उसके चरण
सुर की तंद्रा में भूल जाऊँँ खुद को
बंधु कह पुकार उठता प्रभु को।
छाती मेरी हो उठती गर्वित,
छलक पड़तींं दोनों आँँखें मेरी
अनिमेष ताकतींं केवल तेरा मुख।
कठिन कटु जो कुछ मेरे प्राणों में
गलना चाहेंं अमृतमय गानों में,
सब साधना आराधना मेरी
पाखी-सा उड़ना चाहेंं सुखपूर्वक।
तृप्त हो तुम मेरे गीत-राग में
अच्छा लगता, तुमको लगता अच्छा
जानूँँ मैं इन्हीं गान के नाते
बैठ सका मैं तुम्हारे सम्मुख।
मन से जिसका छोर न पाता
गान से छूता उसके चरण
सुर की तंद्रा में भूल जाऊँँ खुद को
बंधु कह पुकार उठता प्रभु को।
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